Abstract
Indian Journal of Modern Research and Reviews, 2024;2(11):72-77
हिन्दी नाटकों में यथार्थवादी अर्थ, स्वरूप एवं अवधारणा
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Abstract
हिंदी नाट्य साहित्य और रंगमंच का विकास भारतीय समाज, संस्कृति और यथार्थ से गहराई से जुड़ा रहा है। आधुनिक हिंदी नाटक में यथार्थवाद की प्रवृत्ति ने सामाजिक समस्याओं, राजनीतिक परिवर्तनों और मानवीय संवेदनाओं को नए रूप में अभिव्यक्त किया है। रामजी सिंह, नामवर मिश्र, रामविलास शुक्ल और लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी जैसे विद्वानों के कार्यों ने हिंदी रंगमंच के ऐतिहासिक, आलोचनात्मक और सैद्धांतिक पहलुओं को सुव्यवस्थित किया है। विशेषतः गंगाप्रसाद विमल, मृणाल पांडे और सुधा अरोड़ा के स्त्री-नाट्य विमर्श ने रंगमंच में स्त्री दृष्टि, लैंगिक समानता और सामाजिक परिवर्तन के प्रश्नों को केंद्र में रखा है। इस शोध में हिंदी नाटक के ऐतिहासिक विकास, यथार्थवादी प्रवृत्तियों और स्त्री दृष्टि के अंतःसंबंध का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। साथ ही, यह अध्ययन साहित्य और समाज के बीच संवाद को समझने का प्रयास करता है, जिससे हिंदी रंगमंच की प्रासंगिकता और भविष्य की दिशा स्पष्ट हो सके।
Keywords
हिंदी नाटक, यथार्थवाद, सामाजिक यथार्थ, नाट्य-कला, रंगमंच, भारतेंदु हरिश्चंद्र, मोहन राकेश, शंकर शेष, हबीब तनवीर, धर्मवीर भारती, संवाद-शैली, पात्र-चित्रण, कथानक, मंच-शिल्प, आधुनिक नाटक, प्रगतिशील नाटक, सामाजिक परिवर्तन, आर्थिक यथार्थ, राजनीतिक यथार्थ, सांस्कृतिक यथार्थ, रंग-आलोचना, नाट्य-साहित्य, नाट्य-धारा, यथार्थवादी नाटक, रंग-परंपरा, जीवनानुभव, भारतीय रंगमंच, आधुनिकतावाद, उत्तर-आधुनिकता, यथार्थवादी मंचन, नाट्य-अभिनय, चरित्र-विश्लेषण, नाट्य-शिल्प।